महात्मा गांधी और भगत सिंह, दोनों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक थे, लेकिन उनकी विचारधाराएँ और संघर्ष के तरीके एक-दूसरे से भिन्न थे। गांधीजी अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे, जबकि भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारी मार्ग पर चल रहे थे। 1931 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई, और तब से एक सवाल लगातार उठता रहा है – क्या महात्मा गांधी भगत सिंह की फांसी को रोक सकते थे?
पृष्ठभूमि: भगत सिंह का संघर्ष और अंग्रेजी हुकूमत
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को हुआ था। बचपन से ही उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ बगावत के बीज अपने भीतर बोए थे। 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया और यहीं से उनके भीतर क्रांति की चिंगारी भड़क उठी। वे उन क्रांतिकारियों में से एक थे जो मानते थे कि ब्रिटिश सरकार को हिंसात्मक तरीके से उखाड़ फेंका जाना चाहिए।
भगत सिंह ने 1928 में लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए सांडर्स की हत्या की थी। इसके अलावा उन्होंने 1929 में दिल्ली के केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया, जिसका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत को चेतावनी देना था। इस घटना के बाद भगत सिंह और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें लाहौर षड्यंत्र केस में फांसी की सजा सुनाई गई।
गांधीजी और भगत सिंह: विरोधाभासी विचारधाराएँ
महात्मा गांधी और भगत सिंह के विचारधाराओं में गहरा अंतर था। गांधीजी सत्य और अहिंसा को अपने संघर्ष का मुख्य हथियार मानते थे। उनका मानना था कि किसी भी प्रकार की हिंसा समाज को नुकसान पहुंचाती है और इससे कभी भी स्थायी शांति या स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती। दूसरी ओर, भगत सिंह और उनके साथी मानते थे कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष और हिंसा ही एकमात्र रास्ता है।
गांधीजी को कई बार भगत सिंह की हिंसात्मक गतिविधियों के खिलाफ बयान देते हुए भी देखा गया। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे भगत सिंह की वीरता की सराहना करते हैं, लेकिन उनकी हिंसात्मक नीति का समर्थन नहीं कर सकते। इसी कारण कुछ लोग मानते हैं कि गांधीजी ने जानबूझकर भगत सिंह की फांसी को रोकने का प्रयास नहीं किया, क्योंकि वे भगत सिंह की विचारधारा से सहमत नहीं थे।
गांधी-इरविन समझौता: भगत सिंह की फांसी को रोकने का अवसर?
1931 में जब गांधीजी और ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच एक समझौता हुआ, तब भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी का मुद्दा चर्चा में था। इस समझौते के तहत ब्रिटिश सरकार ने कई राजनीतिक कैदियों को रिहा करने का वादा किया, लेकिन भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को इस श्रेणी में शामिल नहीं किया गया।
गांधीजी पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने इस समझौते के दौरान भगत सिंह की फांसी को रोकने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए। हालांकि, इस विषय पर कई मतभेद हैं। कुछ लोग मानते हैं कि गांधीजी ने व्यक्तिगत रूप से लॉर्ड इरविन से भगत सिंह की फांसी को टालने के लिए अपील की थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे ठुकरा दिया। दूसरी ओर, कुछ लोग यह भी मानते हैं कि गांधीजी ने भगत सिंह के जीवन को बचाने के लिए कड़े कदम नहीं उठाए क्योंकि वे उनकी हिंसात्मक विचारधारा से असहमत थे।
ब्रिटिश सरकार का अड़ियल रुख
भगत सिंह की फांसी को लेकर ब्रिटिश सरकार का रुख बहुत ही कठोर था। वे भगत सिंह और उनके साथियों को एक आदर्श क्रांतिकारी के रूप में उभरने नहीं देना चाहते थे। ब्रिटिश अधिकारियों का मानना था कि अगर भगत सिंह की फांसी रद्द कर दी जाती, तो इससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को और भी अधिक बल मिलता और ब्रिटिश हुकूमत की सत्ता कमजोर हो जाती।
यह कहना सही नहीं होगा कि केवल गांधीजी की कोशिशों से भगत सिंह की फांसी रोकी जा सकती थी। ब्रिटिश सरकार किसी भी हालत में भगत सिंह को माफ करने के पक्ष में नहीं थी, और वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि भगत सिंह को फांसी दी जाए ताकि अन्य क्रांतिकारी उनके रास्ते पर न चलें।
गांधीजी के प्रयास: सत्य या मिथक?
गांधीजी के भगत सिंह की फांसी को रोकने के प्रयासों को लेकर ऐतिहासिक तथ्यों में कई मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि गांधीजी ने लॉर्ड इरविन के सामने भगत सिंह की सजा को कम करने की बात रखी थी, लेकिन उनके प्रयास सफल नहीं हुए। गांधीजी ने कहा था कि भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को शहीद के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उन्हें सुधार का मौका दिया जाना चाहिए।
वहीं, कई लोग यह भी मानते हैं कि गांधीजी ने इस मुद्दे पर उतनी सख्त अपील नहीं की जितनी वे कर सकते थे। उनका ध्यान मुख्य रूप से अहिंसक संघर्ष पर था, और वे नहीं चाहते थे कि उनकी अहिंसा की नीति किसी भी प्रकार से हिंसात्मक क्रांतिकारियों के साथ जुड़ जाए।
भगत सिंह का दृष्टिकोण: फांसी या बलिदान?
भगत सिंह स्वयं भी अपने जीवन और मृत्यु को लेकर बहुत स्पष्ट थे। उन्होंने कभी भी माफी की अपील नहीं की और न ही अपनी फांसी से डर दिखाया। वे जानते थे कि उनकी शहादत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा देगी। उनका उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता से बढ़कर राष्ट्र की स्वतंत्रता थी।
भगत सिंह ने अपने अंतिम दिनों में लिखा था, “मैं मरने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरा बलिदान मेरे देशवासियों के लिए प्रेरणा बनेगा।” इससे साफ जाहिर होता है कि भगत सिंह अपनी फांसी को एक बलिदान के रूप में देख रहे थे और वे किसी भी हालत में अपने आदर्शों से समझौता नहीं करना चाहते थे।
निष्कर्ष: क्या गांधी भगत सिंह की फांसी रोक सकते थे?
इस सवाल का कोई सीधा उत्तर नहीं है। महात्मा गांधी ने भगत सिंह की फांसी रोकने के प्रयास किए थे या नहीं, इस पर इतिहासकारों की राय विभाजित है। कुछ मानते हैं कि गांधीजी ने पर्याप्त प्रयास नहीं किए, जबकि अन्य का कहना है कि उन्होंने अपनी सीमा तक प्रयास किया, लेकिन ब्रिटिश सरकार के अड़ियल रवैये के कारण सफल नहीं हो सके।
सच्चाई यह है कि भगत सिंह की शहादत ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई ऊर्जा दी। उनका नाम आज भी उन क्रांतिकारियों में लिया जाता है जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना देश की आजादी के लिए संघर्ष किया। महात्मा गांधी और भगत सिंह के संघर्ष की दिशा अलग हो सकती है, लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही था – भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराना।